महिलाओं के मुद्दों से जुड़ी समकालीन बहसों में एक बड़ा मुद्दा महिला आंदोलन की दशा और दिशा है। महिलाओं से जुड़ी तमाम बहसों में ये बात जोर शोर से आती है कि महिला आंदोलन में अब एक ठहराव की स्थिति आ गई है। 80 के दशक में महिला आंदोलन के बीच जिस ऊर्जा का संचार हुआ था, 90 के दौर में उसका ह्रास होने लगा और समय बीतते बीतते आंदोलन की धार कुंद हो गई। आज के दौर में महिला आंदोलन अपने संस्थानीकरण की अवस्था में पहुँच गया है। जनता और उसके मुद्दों के साथ उसका जुड़ाव जिस तरह से 80 के दौर में था, अब नहीं रहा। महिला आंदोलन पर बातचीत सिर्फ स्त्री अध्ययन की कक्षाओं या फिर स्त्री मुद्दों से जुड़े प्रकाशन संस्थानों या गैर सरकारी संगठनों के वातानुकूलित कक्षों तक ही सीमित होकर रह गई है। इस बात को ध्यान में रखते हुए अपने इस प्रपत्र में मैंने 90 के दौर के महिला आंदोलन की दृष्टि से अवलोकन और विश्लेषण करने का प्रयास किया है, जिसमें इस समय उभरने वाले प्रमुख मुद्दों पर महिला आंदोलन की समझ और प्रतिक्रिया के साथ महिला आंदोलन द्वारा इस दौर में नए महत्वपूर्ण मुद्दों को उभारकर उन्हें चर्चा के केंद्र में लाने पर खास जोर दिया है। मुख्यतः इस आलेख में 80 के दशक के बाद महिला आंदोलन की दशा और दिशा पर बात की गई है। आगे के समय में महिला आंदोलन के सामने किस प्रकार के मुद्दे और चुनौतियाँ आईं और इसका सामना महिला आंदोलन ने कैसे किया।
इतने व्यापक मुद्दे को एक आलेख में समेटना असंभव है क्योंकि महिला आंदोलन का नेतृत्व किसी एक संगठन या विचार द्वारा नहीं है, बल्कि इसमें स्थान, विचार, नेतृत्व की विविधता रही है। यह सिर्फ शहरों तक ही सीमित नहीं रहा है, बल्कि इसकी पहुँच ग्रामीण इलाकों के साथ-साथ आदिवासी इलाकों में भी रही है। हर स्थिति के अनुसार रणनीतिक विविधता रही है। पर सबके मूल में एक ही बात रही है, समाज में व्याप्त किसी भी प्रकार के पितृसत्तात्मक शोषण एवं असमानता से मुक्ति।
महिला आंदोलन को लेकर कई सवाल काफी लंबे समय से चल रहे हैं जो आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं। भारत एक ऐसा स्थान है जहाँ उत्तर-दक्षिण, पूरब-पश्चिम, शहरी-ग्रामीण, नस्ल, जाति, धर्म, भाषा, वर्ग, जेंडर आदि रूपों में लोग विभाजित हैं। एक व्यक्ति के अंदर कई तरह की अस्मिताएँ रहती हैं। अतः एक महिला आंदोलन की कल्पना बहुत कठिन लगती है और स्त्रीवाद की बहु अभिव्यक्तियों की आवश्यकता महसूस होती है।
प्रो. इलीना सेन ने अपनी पुस्तक 'संघर्ष के बीच संघर्ष के बीज' में कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नों को उठाया है, मसलन भारत में संस्कृतियों की विविधता और महिलाओं के बीच जाति एवं वर्ग संबंधी जटिलताओं को देखते हुए क्या हम देश में एक महत्वपूर्ण महिला आंदोलन की बात कर सकते हैं? हम महिला आंदोलन की परिभाषा किस प्रकार करेंगे?, क्या यह ऐसा आंदोलन होता है, जिसमें महिलाएँ सहभागिता करती हैं?, या कि महिला आंदोलन के नाम पर अलग-अलग अभियान मात्र चल रहे हैं। कितने अभियान शहरी मध्य वर्ग के हैं और कितने ग्रामीण? क्या यह आंदोलन एक ऐसा आंदोलन होता है, जिसमें महिलाएँ भागीदारी करती है? ऐसा आंदोलन होता है, जो महिलाओं से जुड़े मुद्दों को उठाता है? तब व्यापक जन आंदोलनों में हम महिलाओं की सहभागिता किस तरह देखते है?1
मुझे लगता है कि 90 के दशक के महिला आंदोलनों में हमें इन सारे सवालों के जवाबों की झलक मिलती है, जो धीरे-धीरे काफी स्पष्ट होते जा रहे हैं। किसी भी आंदोलन के कई दौर होते हैं और वह कई प्रकार की समस्याओं से भी जूझता है। उन समस्याओं से जूझने के नए-नए तरीके विकसित करता है, ये नई रणनीतियाँ ही विभिन्न परिस्थितियों में आंदोलन को जि़ंदा रखती हैं।
आंदोलन के घटकों पर बात करें तो उसमें उद्देश्य, विचारधारा, कार्यक्रम, नेतृत्व और संगठन सबसे महत्वपूर्ण माने जाते।2 इनमें से कोई भी तत्व तयशुदा या स्थिर नहीं होता। ये समय के साथ विकसित होते रहते है और आंदोलन के आगे बढ़ने के साथ-साथ कई बार बदलते भी हैं। महिला आंदोलन के भी विभिन्न दौर रहे हैं। भारत में महिला आंदोलन के प्रारंभ की बात करें, तो हमें यह ईसा से 600 साल पहले महिलाओं के बौद्ध धर्म में प्रवेश के लिए दिए जाने वाले धरने से ही दिखता है। कह सकते हैं कि जब भी कहीं असमानता या अन्याय रहा है, जनता की चेतना ने उसका विरोध करने हेतु संगठित होने का भाव दिया है। आज जिस संदर्भ में हम महिला आंदोलन की बात करते हैं, उसकी स्पष्ट श्रृंखला हम स्वतंत्रता आंदोलन में महिलाओं की सहभागिता से लेकर 80 के दशक में हुए तमाम आंदोलन जैसे बोधगया भूमि-संघर्ष, बलात्कार विरोधी आंदोलन, दहेज विरोधी आंदोलन, महँगाई विरोधी आंदोलन, सती विरोधी आंदोलन, समान नागरिक संहिता हेतु आंदोलन आदि में देखते है, जिसमें सैंकड़ों-हजारों की संख्या में महिलाएँ सड़कों पर निकल आई थीं। इसके साथ-साथ श्रमिक महिलाओं के संघर्ष जिनमें चिपको आंदोलन, धुलिया का आदिवासी संघर्ष, छतीसगढ़ मुक्ति मोर्चा से जुड़ी अनेकों श्रमिक महिलाओं, निप्पाणी की बीड़ी कामगार महिलाएँ या केरल की मछुवारिनों के संघर्षों की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। महिला आंदोलन के इतिहास में अस्सी का दौर हमेशा एक स्वर्ण काल के रूप में याद किया जाता है, आज भी जब हम महिला आंदोलन की बात करते है, तो इसी दौर से हम बाकी आंदोलनों की तुलना करते है। इस समय की महत्ता को कोई भी नकार नहीं सकता। कानून में बदलाव के साथ-साथ सामाजिक परिवर्तन एवं मानसिक गुलामी से मुक्ति हेतु इस दौर में महिलाओं का संघर्ष भारत में स्त्री मुद्दों पर गंभीरता से बात करने का एक मजबूत आधार तैयार करता है।
अगर हम 90 के दशक और उसके बाद के समय की बात करें, तो ऐसा बिल्कुल नहीं हैं कि महिला आंदोलन के हाथ खाली हैं। किसी भी मजबूत आंदोलन की परंपरा होने पर आंदोलन अचानक गायब या खत्म नहीं हो जाते, उनके रूप भले ही कुछ परिवर्तन आ जाएँ। 80 के दौर ने जो महिला आंदोलन को विरासत दी है, 90 के बाद के जटिल समय में उसी विरासत को थामने वाले हाथों ने देश भर में जनतांत्रिक वातावरण की मशाल को जलाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
अगर हम 1990 के बाद के समय पर दृष्टि डालें तो देखेंगे कि आज हम कितनी जटिल स्थितियों में हैं। आज का दौर सिर्फ महिला आंदोलन के लिए ही नहीं बल्कि किसी भी सामाजिक आंदोलन के लिए बहुत कठिन है। 90 के बाद भारत में आई नई आर्थिक नीतियों और ढाँचागत संयोजन कार्यक्रमों के लागू होने के बाद हमारे देश की व्यवस्था एवं सामाजिक, सांस्कृतिक संरचना में एक बहुत बड़ा बदलाव आया है। हिंदुस्तान के भीतर दो हिंदुस्तानों के बीच की खाई पहले ही बहुत गहरी थी जो बढ़ती जा रही है और रुकने का नाम नहीं ले रही। एक वो छोटा सा हिंदुस्तान जिसके जीवन में संसाधनों की बाढ़ सी आ गई, और एक वो दूसरा हिंदुस्तान जो निरंतर आर्थिक विपन्नता की दलदल में धँसता चला जा रहा है। नई आर्थिक नीतियाँ भारत में आम जनता के लिए बेराजगारी, निजीकरण और गरीबी लेकर आईं। दूसरी तरफ जो समस्याएँ भूमंडलीकरण के आने से हमारे देश में पैदा हो गई थीं, उनके प्रति छद्म संवेदनशीलता दिखाते हुए देश में विदेशी पूँजी द्वारा संचालित गैर सरकारी संगठनों की भी बाढ़ आ गई।
90 के ही दौर में हम भूमंडलीकरण के साथ-साथ दो और महत्वपूर्ण परिघटनाएँ देखते हैं, जिसमें कि मंडल कमीशन द्वारा अन्य पिछड़ा वर्ग को आरक्षण देने के बाद देश भर में इसके पक्ष-विपक्ष में लोगों का जुटना और खासतौर में इसके विपक्ष में सवर्ण युवाओं का सामने आना, जिसमें बड़ी संख्या युवतियों की भी थी। दिल्ली विश्वविद्यालय की सवर्ण छात्राओं द्वारा "we don't want unemployed husband" की तख्ती लेकर सड़कों पर उतरना काफी लंबे समय तक चर्चा का विषय रहा।3 जातिगत मान्यताओं की अत्यंत मजबूती और इसका राजनीतिकरण हम इस दौर में देखते हैं।
इसके साथ-साथ बाबरी मस्जिद के विध्वंस, मुंबई दंगों और उसके बाद गोधरा के जनसंहार ने तो रही सही कसर भी पूरी कर दी। भारत भर में सांप्रदायिकता की जो आग लगाई गई, जो नफरत की खाईं दो धर्मों में पैदा की गई, उसे अभी तक नहीं भरा जा सका है। मुजफ्फरनगर इसका ताजा उदाहरण है। इन घटनाओं से एक दूसरे के प्रति जो अविश्वास और विद्वेष पैदा हुआ है। उसे खत्म होने में ना जाने कितना समय लगेगा, कोई नहीं जानता।
1990 का दौर इन तीनों समस्याओं से बुरी तरह उलझा हुआ था। इस पूरे दौर पर महिलाओं को देखते हुए विचार करें तो सूजी थारू और निरंजना के शब्दों पर गौर करना होगा कि 'महिलाएँ इस दौर मे अचानक हर जगह दिखने लगीं।'4 महिलाओं के हर जगह प्रकटीकरण का श्रेय लिया भूमंडलीकरण ने। उसने श्रम के स्त्री-करण की बात करते हुए श्रम में स्त्री की भागीदारी बढ़ने का कारण नई आर्थिक नीतियों को माना। महिला को बाजार के एक उपभोक्ता के रूप में घर से निकाला और सौंदर्य प्रतियोगिताओं के माध्यम से तमाम सुख-सुविधाओं का उपभोग करते-करते स्वयं उपभोग्य हो जाना भी सिखाया। इस स्थिति को शर्मिला रेगे काफी रोचक तरीके से स्पष्ट करती है कि 70-80 के दशक में जहाँ सारी बात यहीं केंद्रित थी कि महिलाएँ अदृश्य है, उन्हें सामने लाना होगा। पर 90 के दशक में इसके उलट महिलाएँ हर जगह दिख रही हैं - कह सकते है कि महिलाओं की अतिदृश्यता (hypervisibility) है, पर स्त्रीवादी दृष्टिकोण से देखेंगे, तो सारी उपस्थिति सराहनीय नहीं मानी जाएगी।5 ये ऐसा दौर है, जहाँ सवर्ण महिलाएँ जातिगत आरक्षण के विरोध में खुलकर आ रही है। जहाँ सवर्णो के साथ-साथ दलित और आदिवासी महिलाएँ एक धर्म विशेष के विरुद्ध सड़क पर उतर रही हैं। उस धर्म की महिलाओं के साथ बलात्कार पर खुशियाँ मना रही हैं या बलात्कार के लिए अपने परिवार के पुरुषों को उकसा रही हैं, दुकानों में लूटपाट कर रही हैं। इस पूरे दौर ने महिलाओं को लेकर बहुत से मिथों को तोड़कर रख दिया।
इन सारी बातों के कारण यह दौर महिला आंदोलन के लिए बहुत चुनौतीपूर्ण रहा। क्योंकि जहाँ संरचनागत स्तर पर काफी परिवर्तन हुए, वहीं महिलाओं की इन सारे मुद्दों में सक्रियता ने भी महिला आंदोलन को भी एक निश्चित संरचना में आने को प्रेरित किया, क्योंकि ये बात स्पष्ट हो गई, कि महिलाओं द्वारा किसी भी मुद्दे पर इकट्ठे होकर आ जाना ही महिला आंदोलन नहीं है, बल्कि महिला आंदोलन का आधार संरचनागत असमानता से लड़ना साथ ही समान और जनतांत्रिक संबंधों की ओर आगे बढ़ना है। इसी दौर में वर्ल्ड बैंक, आई.एम.एफ. और अमेरिका की तमाम फंडिंग एजेंसियों ने जेंडर संबंधों को केंद्रित करके महिलाओं के उत्थान के लिए, तमाम गैर सरकारी संगठनों के माध्यम से अपना जाल भी फैलाना शुरू कर दिया। इसके माध्यम से स्वाभाविक नेतृत्व करने वालों को अपने प्रभाव में लेने या फिर हाशिए पर पड़े, उत्पीड़ित लोगों के मुद्दों के साथ एकजुटता दिखाकर अपना शोषणकारी चेहरा छुपाने की कोशिश दिखती है। नौकरी, अच्छी तनख्वाह, शोध के लिए बेहतर फंडिंग ने साम्राज्यवादी देशों द्वारा केंद्रित मुद्दों पर ही काम करने के दबाव को सामने रखा, जिससे वास्तविक मुद्दे सतह से गायब होने लगे।6 पर इस अँधेरे दौर में भी महिला आंदोलन ने अपनी मशाल को बुझने नहीं, दिया बल्कि अनेकों छोटे-छोटे आंदोलनों को साथ लेकर और बड़े आंदोलनों से भी मजबूत जुड़ाव कर अपनी राजनीति को पुख्ता किया। इसी दौर में हमें कई ऐसे गैर सरकारी संगठनों की भी सूची मिलती है, जो महिलाओं के हक की बात करने में बहुत सक्रिय रहे हैं और महिला आंदोलन के साथ मजबूत जुड़ाव भी विकसित किया ।
इस दौर में अगर महिला आंदोलन की बात करें, तो हमें एक लंबी फेहरिश्त महिलाओं के संघर्षों की मिलती है। इस दौर की इन तीनों ही प्रमुख समस्याओं पर महिला आंदोलन ने ध्यान केंद्रित किया है। सबसे पहले हम भूमंडलीकरण की बात करते हैं। भूमंडलीकरण और उसकी नीतियाँ महिला आंदोलन की आलोचना का प्रमुख केंद्र रही हैं। भूमंडलीकरण की नारीवादी आलोचना जहाँ जेंडर और विकास का राजनैतिक अर्थशास्त्र की सैद्धांतिकी के रूप में सामने आई, वहीं इससे उपजी समस्याओं पर महिलाएँ सड़कों पर भी उतरीं। इस दौर की खासियत रही कि महिला आंदोलन ने अपना दायरा अत्यंत विकसित करके सारे मुद्दे महिलाओं के मुद्दे का नारा दिया। इसके पीछे समस्याओं की संरचना व उसका आधार समझने का प्रयास है। जब आप किसी भी समस्या को गहराई में जाकर समझते हैं, तो कहीं न कहीं ढाँचागत दिक्कतों से आपकी मुलाकात होती है। इसी समझ के विकसित होने से महिला आंदोलन ने अपने मुद्दे सिर्फ महिलाओं तक ही सीमित नहीं रखे। विस्थापन विरोधी आंदोलन, बड़े बाँध विरोधी आंदोलन, महिला श्रमिक संगठनों के काम की स्थितियों को लेकर आंदोलन काफी मजबूती से उभरे। जल, जंगल जमीन, पर्यावरण आदि की विदेशी कंपनियों से सुरक्षा के लिए भी महिलाएँ एकजुट होकर सामने आईं क्योंकि उनकी विपन्नता के कारण के रूप में विदेशी कंपनियों के उनके संसाधनों पर नियंत्रण को वे समझ चुकी थीं। साथ ही ये कैसे परिवारिक हिंसा में भी वृद्धि करती हैं, इस संबंध को भी बखूबी समझ बनी। जया मेहता कहती हैं कि 'महिलाएँ समान वेतन के लिए लड़ें, अच्छे काम के लिए लड़ें, अच्छी व्यवस्था के लिए लड़ें, अपने बच्चों की क्रेच व्यवस्था के लिए लड़ें, पर कामगार वर्ग के आंदोलन की जो दिशा है, उसको बदलने, तय करने में भी हम एक हिस्सा हों।'7 जया के इसी बात को कई श्रमिक महिला संगठनों ने पूरा करने का प्रयास भी किया है। जिसमें 'छत्तीसगढ़ महिला मुक्ति मोर्चा' के कार्य उल्लेखनीय हैं। क्योंकि जहाँ उन्होंने हड़ताल, बस्तियाँ आदि को बचाने में अपनी भूमिका निभाई, वहीं अपने घर में पत्नी के साथ उत्पीड़न के मामले में अपने ट्रेड यूनियन के नेताओं को कटघरे में खड़ा करने में भी उन्होंने देर नहीं की। भूमंडलीकरण के विरोध में किसान महिलाओं का संगठन शेतकरी महिला अघाड़ी जो कि महाराष्ट्र शेतकरी संगठन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, उसका योगदान भी अविस्मरणीय है। शेतकरी महिला अघाड़ी के 1991 से 1996 के अथक प्रयासों से "लक्ष्मी मुक्ति" नाम से कार्यक्रम चलाया गया, जिसके अंतर्गत लगभग दो लाख लोगों ने खुद से अपनी जमीन जायदाद में अपनी पत्नी का अंश उनके नाम कर दिया। महिला अघाड़ी के इस प्रयास से लाखों महिलाएँ लाभांवित हुई।8
महिला आंदोलन द्वारा भूमंडलीकरण की आलोचना एक और मुद्दा जुड़ा। महिला आंदोलन से जुडे लोगों की शिकायत थी कि जिस तरह से अकादमिक बहसों में भूमंडलीकरण पर चर्चा होती आई है, और गरीब भारतीय जनता जिस तरह से भूमंडलीकरण को अपने रोजमर्रा के जीवन में महसूस कर रही है, उसमें बहुत बडा अंतर है। भूमंडलीकरण को समाज के वंचित तबके के नजरिए से समझने के प्रयास में में महिला आंदोलन की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। अन्य मुद्दों में भूमंडलीकरण के साथ स्त्री के वस्तुकरण के रूप में आई सौंदर्य प्रतियोगिताओं का भी मुखर विरोध किया गया। मिस एनेमिक, मिस पुअर और मिस मिसिंग जैसी उपाधियाँ सामने लाकर उन्होंने भूमंडलीकरण का एक आम भारतीय स्त्री के ऊपर पड़ने वाले प्रभावों को चिन्हित किया। कुपोषण, गरीबी और भ्रूण हत्या से जूझते भारत में हम नारी के किस सौंदर्य पर चर्चा कर रहे हैं या किस नकली सुंदरता पर धन लुटा रहे हैं। भूमंडलीकरण से जुड़े हुए अन्य मुद्दों में एक महत्वपूर्ण मुद्दा स्वास्थ्यगत नीतियों को लेकर भी उठा, खासतौर पर स्त्री के शरीर पर उसके अधिकार का। भूमंडलीकरण ने जहाँ अमीर को अधिक अमीर बनाया, वहीं गरीब को और अधिक गरीब। और गरीबी का आलम ये कि हालत भुखमरी तक पहुँच गई। इस भुखमरी का कारण विकसित देशों द्वारा भारत जैसे देशों में बढ़ती जनसंख्या को ठहराया गया। जनसंख्या नियंत्रण के लिए तमाम तरह की दवाएँ, इंजेक्शन और इंप्लांट करने वाले तरीकों को भारत भेजा गया, ये सारे तरीके स्त्रियों के लिए ही थे। इसमें क्विनक्रीन, डेपो प्रोवेरा और नार प्लांट प्रमुख थे। इन सारे ही साधनों का पहले पशुओं पर कोई अध्ययन नहीं किया गया था। सीधे सीधे तृतीय देशों की महिलाओं पर सीधे इसका प्रयोग शुरू कर दिया। महिलाओं के शरीर पर जो खतरनाक प्रभाव पड़ रहे थे, उसकी कोई चर्चा नहीं थी। इनके प्रयोग से स्त्रियों की प्रजनन क्षमता भी खत्म हो रही थी। कैंसर के खतरों का भी भय था। साईड एफेक्ट्स की तो कोई गिनती ही न थी। ऐसी स्थिति में 27 से 30 ऑक्टोबर 1998 के बीच जब दिल्ली में "सातवीं अंतरराष्ट्रीय प्रजनन प्रतिरक्षण विज्ञान कांग्रेस" हो रही थी तो विभिन्न वैज्ञानिक व अन्य लोगों द्वारा महिला विरोधी परियोजनाओं का विरोध करने के लिए महिला कार्यकर्ता वहाँ पहुँचे और उन्होंने स्त्रियों के शरीर पर पडने वाले हानिकारक प्रभावों से इन लोगों को अवगत कराया। इस अभियान में दिल्ली के सहेली नामक संगठन की भूमिका प्रमुख थी।9 सहेली समूह ने जनसंख्या नियंत्रण, हानिकारक और खतरनाक गर्भ निरोधन प्रक्रिया के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय मुहिम का गठन किया। खासतौर पर गर्भाधान को एक रोग या बीमारी मानना तथा उसके प्रतिरोध रूप, शरीर में प्रतिरक्षण उत्पन्न करना, इस मूल सिद्धांत की मुखालफत महिला आंदोलन द्वारा की गई। आंदोलन के माध्यम से महिलाओं के स्वास्थ्य और उस पर होने वाली राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय राजनीति को चर्चा के केंद्र में लाना एक बड़ी उपलब्धि रही।
इसके बाद महिला आंदोलन का एक महत्वपूर्ण मुद्दा हिंसा का विरोध रहा। महिला के जीवन में हिंसा उसके पैदा होने से लेकर घर, परिवार, कार्यस्थल, सार्वजनिक स्थल से लेकर अपने देश के भीतर या बाहर कहीं भयमुक्त नहीं रहने देती है। इसलिए अलग-अलग स्तर पर कई आंदोलनों ने महिलाओं के ऊपर की जाने वाली हिंसा को सामने लाया व उसे दूर करने के लिए प्रयास किया जैसे कि बालिका भ्रूण हत्या का विरोध, आई.वी.एफ. का विरोध जिसमें भ्रूण निर्माण से पहले ही बच्चों के लिंग का चयन कर लिया जाता है, से लेकर जातिगत हिंसा, आंतरिक क्षेत्र में होने वाले तनावों, जैसे कि उत्तर-पूर्व, कश्मीर और सीमावर्ती इलाकों में सुरक्षा के नाम पर सैन्यीकरण से होने वाली महिलाओं पर हिंसा की समस्या को प्रमुखता से उभारा और उसकी रोकथाम के लिए सक्रिय प्रयास किए।
हिंसा के विरोध में हमें एक पूरी श्रंखला ही 90 के दशक में मिलती है। 1992 में राजस्थान की साथिन भँवरी देवी के साथ हुए बलात्कार के बाद कोर्ट का यह कहना कि उच्च जाति के पुरुष निम्न जाति की महिला को स्पर्श ही नहीं कर सकते, अतः बलात्कार संभव नही है, ने महिला आंदोलनकारियों को सकते में डाल दिया। इस घटना के बाद जहाँ महिलाओं पर बलात्कार की बहस तेज हुई वहीं कार्यस्थल पर महिलाओं को एक सुरक्षित वातावरण उपलब्ध कराने की माँग भी उठने लगी क्योंकि भँवरी देवी ने बाल विवाह का विरोध किया था, जो कि उसके साथिन के कार्य क्षेत्र का ही हिस्सा था। हिस्सा था। इसे लेकर कानूनी लड़ाइयाँ भी लड़ी गईं। अन्य कार्यस्थलों पर भी महिलाएँ छींटाकशी, अश्लील, अभद्र टिप्पणियों का सामना करती रहती हैं, वे यदि इसकी शिकायत भी किसी से करती हैं, तो माना जाता है कि ये महिलाएँ मजाक को नहीं समझती। इन्हें 'sense of humour' नहीं है, लेकिन महिलाएँ जिस पीड़ा को झेलती है, उसका अहसास कम लोगों को ही हो पाता है। रूपन देओल बजाज केस इसका बडा प्रमाण है। 1997 में कार्य क्षेत्र पर यौन उत्पीडन के विरुद्ध आया कानून महिलाओं की उसी माँग पर आधारित जो उन्होंने भँवरी देवी के बलात्कार के समय उठायी थी, और इस मुद्दे को वे न्यायालय तक ले गई थी।10 विशाखा गाईड लाइंस के आधार पर कार्य स्थल और विभिन्न शैक्षिक संस्थानों में यौन उत्पीड़न के विरुद्ध समितियों का निर्माण महिला आंदोलन की एक बड़ी विजय रही है।
कार्य स्थल पर यौन हिंसा के बाद घरेलू हिंसा की भी बात आती है। महिला आंदोलन के अथक प्रयास के कारण ही घरेलू हिंसा जैसा शब्द अपने अस्तित्व में आया, अन्यथा परिवार को हमेशा महिलाओं के लिए अत्यंत सुरक्षित स्थान माना जाता रहा था, जहाँ स्त्री के खिलाफ किसी प्रकार की हिंसा घट ही नहीं सकती। महिला आंदोलन ने ही पत्नी के अतिरिक्त परिवार की अन्य स्त्रियाँ जैसे कि माँ, बहन, दूसरी पत्नी या घर में काम करने वाली स्त्रियों को भी घरेलू हिंसा के दायरे में लाने का काम किया, नहीं तो घरेलू हिंसा सिर्फ दहेज हिंसा तक ही सीमित रह जाती थी और इन महिलाओं के साथ किसी भी पारिवारिक हिंसा को घर का मामला बता कर नजरंदाज कर दिया जाता था। घरेलू हिंसा से सुरक्षा के लिए 'घरेलू हिंसा अधिनियम 2005' में अपने अस्तित्व में आया। घरेलू हिंसा के भीतर महत्वपूर्ण बात यह रही कि इसमें शारीरिक हिंसा के साथ-साथ आर्थिक, भावनात्मक और वाचिक हिंसा को भी शामिल किया गया। हिंसा के इतने विभिन्न व सूक्ष्म पहलुओं को समझ पाना महिला आंदोलन के प्रयासों से ही संभव हो सका। हिंसा के अन्य रूपों में राज्य के द्वारा की जाने वाली हिंसा का विरोध काफी मुखर रूप से हमें कुछ खास जगहों पर मिलता है। आज राज्य का चरित्र बहुत तेजी से बदला है, अपनी संरचना का किसी भी तरह से मुखर विरोध करने वालों के प्रति उसका दमनात्मक रवैया काफी तेज हुआ है। इस दमनात्मक रवैये का सर्वाधिक शिकार महिलाएँ होती हैं। जब भी किसी समुदाय या जाति को अपमानित या उत्पीड़ित करना हो, या राज्य के तथाकथित दुश्मनों तक राज्य की पहुँच ना हो पाए तो राज्य का सारा गुस्सा सारी नाराजगी उसकी महिलाओं पर ही निकलती है। छत्तीसगढ़, मणिपुर, असम, गुजरात और भी तमाम जगहों पर राज्य द्वारा की जाने वाली हिंसा को महिलाओं पर खास तौर केंद्रित किया गया है। महिलाओं पर होने वाले क्रूर बलात्कारों के विरोध में मणिपुरी महिलाओं का नग्न प्रदर्शन हम कभी नहीं भूल नहीं सकते हैं। असम में 'नागा मदर्स एसोसिएशन' और मणिपुर में 'मेइरा पेइबिस' दोनों ही संगठनों की महिलाएँ जहाँ राज्य द्वारा महिलाओं को प्रताड़ित करने का विरोध कर रही थीं, वहीं वे अपने ही राज्य के उग्रवादी संगठनों द्वारा राज्य की महिलाओं पर की जाने वाली हिंसा के खिलाफ भी लड रहीं थी। नागा मदर्स एसोसिएशन ने 1994 में नारा दिया - "shed no more blood"। इन महिलाओं का कहना था कि "हम माँ है और हमारे किसी भी बच्चे की तकलीफ हम सहन नहीं करेंगे।'11 राज्य जनित हिंसा का विरोध और सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून के निषेध के साथ व्यक्ति के मानवाधिकारों की सुरक्षा, शराब एवं नशीली दवाओं का विरोध, युवाओं को इसकी लत से दूर करने के प्रयास, नागालैंड के भीतर 1992 से जारी नागा-कुकी के बीच होने वाले हिंसक तनावों का खासतौर पर यौनिक हिंसा के रूप में महिलाओं पर पड़ने वाले प्रभाव और उनके मानवाधिकारों के हनन को एन.एम.ए. (नागा मदर्स एसोसिएशन) ने प्रमुखता से उठाया। इसके साथ-साथ उत्तर-पूर्व की समस्या को विकास और राजनीति से जोड़कर देखा और कहा कि जब तक इन समस्याओं का राजनैतिक हल नहीं निकाला जाएगा और इस क्षेत्र का विकास नहीं किया जाता, तब तक शांति स्थापित करने के प्रयास पूरी तरह सफल नहीं हो पाएँगे। इस प्रकार एन.एम.ए. ने सामाजिक एवं राजनैतिक दोनों स्तरों पर उत्तर-पूर्व के समाज में एक बेहतर वातावरण के निर्माण के प्रयास किए। इसी प्रयास के संदर्भ में एन.एम.ए. के नेतृत्व में 70 लोगों का प्रतिनिधि मंडल नई दिल्ली गया और नागरिक समाज एवं विभिन्न संगठनों से उत्तर-पूर्व के मुद्दों पर गंभीर चर्चा की। संगठन का मानना था कि लोगों के साथ लगातार चर्चा करके उन्हें वहाँ कि स्थितियों से अवगत कराके और अपने साथ शामिल करके उत्तर-पूर्व की बेहतरी के प्रयास किए जा सकते हैं। एन.एम.ए. का मानना था कि स्थानीय लोगों, अलगाववादी और सरकार तीनों के बीच बातचीत से ही इस क्षेत्र की समस्या का समाधान निकाला जा सकता है।12 छत्तीसगढ में भी छत्तीसगढ़ महिला मुक्ति मोर्चा की महिला श्रमिकों ने भी आदिवासी महिलाओं पर राज्य द्वारा होने वाले दमन के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की।
राज्य द्वारा प्रायोजित हिंसा की बात करें, तो हम गोधरा के दंगों को भी शामिल करेंगे। भले ही प्रत्यक्ष रूप से राज्य ने महिलाओं पर हिंसा न की हो पर हिंदूवादी संगठनों को महिलाओं पर बलात्कार की खुली छूट देकर उसने अप्रत्यक्ष रूप से अपनी भूमिका निभाई। सैंकड़ों महिलाओं का शरीर मानवीय क्रूरता का गवाह बना। धर्म के नाम पर खास समुदाय द्वारा क्रूरता और उसका राज्य सत्ता द्वारा मौन समर्थन के साथ-साथ इस पूरे जनसंहार में बड़ी संख्या में हिंदू महिलाओं की भूमिका महिला आंदोलन के लिए बडा सदमा था। तमाम महिला समूहों ने पीड़ित लोगों के साथ बात करके अपनी रिपोर्टें दीं, जो बच्चियों और महिलाओं के ऊपर की गई बर्बर यौनिक हिंसा को सामने लेकर आए। महिलाओं के ऊपर की जाने वाली भयानक हिंसा की वास्तविकता आने के बाद ही गुजरात का दंगा, गुजरात का नरसंहार बना, क्योंकि महिलाओं के शरीर पर बलात्कार को एक हथियार बनाकर पूरी नस्ल को खत्म करने का कोशिश की गई थी। इस उदाहरण को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि राज्य के द्वारा सामुदायिक हिंसा (खासतौर से मुस्लिम महिलाओं पर) प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़कर अपने नागरिकों पर उसी तरह होती है, जिस प्रकार से जाति समूह अपने जातीय नियमों को तोड़ने वाली अपने परिवार की महिलाओं पर भी हिंसा करने से नहीं चूकता है।
खाप पंचायतों द्वारा युवतियों की ऊपर की जाने वाली हिंसा का मुद्दा भी महिला आंदोलन से अछूता नहीं रहा है। 2005 में इमराना केस ने इसे काफी तीव्रता दी। देश भर में इस घटना के विरोध में महिलाओं द्वारा आंदोलन किए गए। महिला समूहों के ही प्रयास से इमराना का केस धार्मिक की जगह में धर्मनिरपेक्ष कोर्ट में चलाया गया जिसमें उसके ससुर अली मुहम्मद को 8 वर्ष की सजा और 8 हजार रुपया जुर्माना हुआ।। गाँव द्वारा इमराना व उसके पति के निष्कासन के बाद AIDWA (All India Democratic Women's Association) ने उनके घर के लिए जमीन मुहैया कराई। इसी घटना से भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन के माध्यम से मुस्लिम महिलाओं का भी मुखर विरोध सामने आया, जिन्होंने इस तरह से धर्म की गलत व्याख्या करने वाले फतवों की घोर निंदा की।13
इसके बाद महिला आंदोलन ने यौनिकता के मुद्दे को भी जोर शोर से उठाया। धारा 377 को हटाना, समलैंगिक संबंधों को मान्यता और उन्हें एक सुरक्षित व गरिमामय जीवन के लिए महिला आंदोलन ने अनवरत प्रयास किए हैं। खासतौर पर यौनिकता पर बातचीत से जो तात्पर्य "फ्री सेक्स" लगाया जाता था, उसे और स्पष्ट किया कि यौनिकता से तात्पर्य असल में यौन संबंधों के बीच सत्ता-संबंध और मानवीय गरिमा है।14 जिस समय फायर फिल्म के प्रदर्शन को लेकर शिवसेना उग्र विरोध कर रही थी, उस समय यौनिकता के तमाम मुद्दों को लेकर महिला आंदोलन के कार्यकर्ता सामने आए। इसके बाद मुंबई की बार डांसर्स को ये कहकर निकाला जाना कि वे युवा पीढ़ी के लिए नैतिक खतरा उत्पन करेंगी पर यौन कर्म पर किसी तरह की पाबंदी न होना, एक तरह से बार बालाओं को इसी तरफ धकेलने का प्रयास था, जो उनकी विवशता को और अधिक बढ़ा देता है। इस मुद्दे पर भी महिलाओं ने आंदोलन करके बार बालाओं को काम करने का अधिकार व सुरक्षित कार्यस्थल उपलब्ध कराने की माँगें रखीं। वेश्यावृति को यौन कर्म कहने की बहस भी इस दौर की उपज है। 90 का दशक भारत में इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इसमें यौनिकता के मुद्दे पर विस्तार से चर्चा की गई। जिस मुद्दे को बहुत शर्म का विषय माना जाता था, जिसके बारे में बहुत ढके स्वरों में बात की जाती थी, उसके विभिन्न पहलुओं पर राजनैतिक मुद्दे के समान ही चर्चा की गई। इसके पीछे हम विदेशों द्वारा प्रायोजित एड्स कैंपेन के प्रभाव को नकार नहीं सकते, पर यौनिकता के मुद्दे को पितृसत्ता एवं जाति व्यवस्था से जोड़कर जटिल स्थिति को स्पष्ट किया।
90 के दशक में जो आंदोलन सबसे ज्यादा प्रभावी रहा उसमें महिला आरक्षण का भी नाम आएगा। अमूमन सारी पार्टियों के महिला संगठनों ने इसका समर्थन किया। 81 वाँ संशोधन जो कि 1996 में आया था, उसके बाद से लगातार महिला आरक्षण के मुद्दे पर तीखी बहस और आंदोलन चल रहा है। फिलहाल ये सारा मामला "कोटा के भीतर कोटा" मामले पर अटक गया है। जिसमें दो धड़े सामने हैं। एक इसी स्थिति में आरक्षण चाह रहे है, और दूसरे इस कोटा के भीतर अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, मुस्लिम महिलाओं के भी आरक्षण की माँग कर रहे है। लेकिन एक बात पर सभी महिला संगठन सहमत हैं, वह है लोकसभा व विधानसभा में महिलाओं को 33% आरक्षण। महिलाओं ने पंचायती व्यवस्था में महिलाओं के आरक्षण के बाद जब उसके सकारात्मक परिणाम देखे, कि किसी तरह महिलाओं ने शुरुआती दिक्कतों को झेलने के बाद न केवल बेहतर तरीके से सत्ता को सँभाला, बल्कि लोगों के जीवन से जुड़ी हुई समस्याओं को भी दूर करने में महती भूमिका निभाई है, तो अगर महिलाओं का प्रतिनिधित्व संसद में पहुँचेगा तो जेंडर समानता के क्षेत्र में एक मजबूत कदम होगा। इस बहस में कई मुद्दे आरक्षण विरोध में भी आए। महिला आरक्षण के मुद्दे पर हर राजनैतिक दल की महिला नेत्रियों के मध्य जबरदस्त एकजुटता दिखाई दी।
ये दौर दलित महिला आंदोलन की दृष्टि से भी याद रखा जाएगा। दलित स्त्रीवादियों की महिला आंदोलन से एक शिकायत थी कि उन्होंने जाति के मुद्दे को अपने आंदोलन का हिस्सा नहीं बनाया। इन समूहों ने भारत में जातिगत असमानता और एक दलित महिला के ऊपर जाति, वर्ग और पितृसत्ता द्वारा तिहरे शोषण की बात की। ये समूह जाति के साथ-साथ भूमंडलीकरण के विरोध में भी उतरा क्योंकि इससे विस्थापन, कृषि का ह्रास जैसी समस्याएँ सामने आईं जिन्होंने प्रत्यक्ष रूप से खेतों में काम करने वाली श्रमिक महिलाओं को प्रभावित किया, जो कि अधिकांश दलित थीं। नेशनल फेडरेशन ऑफ दलित वूमेन ने अपनी बहस में जाति, जेंडर और उसके भूमंडलीय पूँजी के साथ संबंधों पर लोगों का ध्यान आकृष्ट किया। इसी बहस के साथ दलित आंदोलन व महिला आंदोलन के बीच अंतर्संबंधों का भी विकास हुआ। दलित महिला आंदोलन का एक महत्वपूर्ण प्रयास 2006 के खैरलांजी हत्याकांड में पीड़ित पक्ष की आवाज को मजबूती के साथ सामने लाना रहा। खैरलांजी हत्याकांड के बाद दबंगों के राजनैतिक प्रभाव और दबाव के कारण भोतमांगे परिवार की आवाज दबाने की पुरजोर कोशिश की जा रही थी। तब नागपुर, अमरावती, भंडारा की दलित महिला कार्यकर्ताओं ने नागपुर से भंडारा तक एक बड़ा प्रतिरोध मार्च आयोजित किया, जिसने इस मामले को पूरी गंभीरता दे दी। इस प्रयास में संबुद्ध महिला संगठन की प्रमुख भूमिका रही। जो महिलाएँ इस आंदोलन से जुड़ी थीं, वे बहुत लंबे समय तक किसी न किसी रूप में पुलिस और राज्य द्वारा की जा रही हिंसा की शिकार बनती रहीं। लेकिन हिंसा का सामना करते हुए भी उन्होंने अपने लगातार किए जा रहे प्रतिरोध को बंद नहीं किया, जिसका परिणाम दलित संगठनों की अपने प्रति हुए अत्याचारों के प्रतिकार करने की सोच विकसित करने के रूप में हुई।15
महिला आंदोलन ने नीतियों में बदलाव, लोगों की समझ विकसित करने के प्रयास आदि में धरना, प्रदर्शन के साथ साथ कई अन्य तरीकों का भी प्रयोग किया। इसमें हैदराबाद वूमेन रिसोर्स सेंटर का कार्य उल्लेखनीय हैं। उन्होंने मिथकों के कई महिला चरित्रों का प्रयोग कर उनको एक नई व्याख्या के साथ लोगों के सामने ले आए। 'वार एंड पीस', 'लक्ष्मण रेखा' नाम के दो नाटकों का प्रदर्शन उन्होंने राज्य भर में किया, जिसमें सीता, शूर्पणखा, गांधारी, उर्मिला के जीवन का विवेचन एक स्त्रीवादी दृष्टिकोण से किया कि वे पितृसत्ता की आलोचना अपने जीवन में कैसे करती हैं। साथ ही मिथकों में पितृसत्ता की मुखर सहमति वाले अपने चोले को वे कैसे उतार कर फेंक देतीं हैं। नृत्य, गायन, नाटक का स्त्री आंदोलन ने अपना संदेश पहुँचाने के लिए बहुत ही रचनात्मक प्रयोग किया है।16
ऐसे ही अकादमिक जगत में स्त्री अध्ययन विषय का बड़ी संख्या में आना भी महिला आंदोलन की ही इसी दौर की एक रणनीति है। महिला मुद्दों को लेकर जो हमारी पूर्वजाओं के संघर्ष रहे हैं,एक प्रजातांत्रिक वातावरण की निर्मिति में जो उनका योगदान रहा है। वह अगली पीढ़ी तक जाना बहुत जरूरी है ताकि नई पीढ़ी महिला आंदोलन और उसके इतिहास से परिचित हो सके। साथ ही नए समय में उस परंपरा को आगे ले जा सकने में अपना सहयोग दे सके। इस उद्देश्य में स्त्री अध्ययन विषय सफल रहा है। भले ही लोगों को यह शिकायत हो कि महिला आंदोलन के संस्थानीकरण का ही एक रूप हो, पर इसके बावजूद अकादमिक जगत में जेंडर को विश्लेषण की एक श्रेणी के रूप में स्थापित करने में इस विषय के बडे हस्तक्षेप को नकारा नहीं जा सकता।17
इस पूरे दौर का यदि इन आंदोलनों के संदर्भ में हम विश्लेषण करते हैं, तो पाते हैं कि देश भर में अलग अलग स्तर पर छोटे बड़े रूप में महिला आंदोलन लगातार चल रहे हैं। शायद ही कोई जगह ऐसी हो जहाँ किसी न किसी रूप में महिला आंदोलन सक्रिय न हों। मुझे लगता है कि जब हम यह कहते हैं कि महिला आंदोलन का संस्थानीकरण हो गया है, सड़कों पर महिलाओं की भागीदारी नहीं दिख रही है, तो कहीं न कहीं हम आंदोलन में एक मध्यमवर्गीय महिला का चेहरा तलाश रहे होते है और जब हम उसे नहीं देखते, तो पूरे आंदोलन को ही खारिज करने की मानसिकता में आ जाते हैं। जबकि इसी दौर में दलित, आदिवासी, श्रमिक महिलाओं के आंदोलन किसी पार्टी के भीतर या स्वायत्त रूप से भी काफी सक्रिय रहे हैं। अतः संस्थानीकरण पर बात करते हुए हम एक खास वर्ग की महिलाओं पर ही बात केंद्रित करते हैं। मध्यवर्गीय महिलाओं ने भी अलग अलग स्तरों पर अपनी सहभागिता दर्ज की है। खासतौर पर केंद्र में बनने वाले नीतिगत नियमों में जेंडर दृष्टिकोण को जोड़े जाने पर उनका योगदान है।
इसी दौर में महिला आंदोलन ने जाति, वर्ग और जेंडर की साझा समझ विकसित की, जिसने जहाँ इस पूरे आंदोलन को विकसित किया, वहीं अन्य महत्वपूर्ण आंदोलन के साथ रिश्ते की भी मजबूत जमीन तैयार की। इस विश्लेषण ने बताया कि एक स्त्री की यौनिकता, गतिशीलता नियंत्रण से ही जातिगत पवित्रता और जातिगत पवित्रता से वर्गगत श्रेष्ठता की सुविधाएँ प्राप्त होती हैं। अतः हमें इन तीनों ही असमानताओं पर एक साथ आक्रमण करना होगा। इस रणनीति के साथ महिला आंदोलन ने सारे मुद्दों को अपना लिया क्योंकि वे सभी किसी न किसी रूप में महिलाओं के जीवन को प्रभावित करते हैं। "महिलाओं के अधिकार मानवाधिकार" हैं, का नारा इसी दौर में महिला आंदोलन ने ग्रहण किया। 18 इस नारे के माध्यम से महिलाओं के मानवाधिकारों की जोरदार वकालत की।
महिला आंदोलन आज कई समस्याओं से भी जूझ रहा है, जैसे कि फंडिंग की समस्या। डॉ इंदु अग्निहोत्री के शब्दों में "आज पैसे का अभाव खलता है। कई बार पैसों के अभाव के कारण दूसरी एजेंसियों से धन प्राप्त कर अपने काम आगे बढाते हैं, पर धीरे धीरे वे उन एजेंसियों के ही घेरे में आ जाते हैं और वास्तविक मुद्दे न उठाकर उन एजेंसियों के ही मुद्दों को लेकर चलने लगते हैं। अगर फंडिंग की समस्या का कोई हल मिले तो गैर सरकारी संगठनों के बढ़ते प्रभाव व इनके द्वारा आंदोलन की ऊर्जा सोखने की ताकत कम की जा सकती है।"19 पर हम सारे गैर सरकारी संगठनों के प्रयासों को नकार भी नहीं सकते हैं। हाशिए का जीवन जीने वाली महिलाओं के भीतर स्वावलंबन का भाव भरने में, उनकी आर्थिक हैसियत को कुछ हद तक सुधारने में इन संगठनों की महती भूमिका रही है। इला भट्ट द्वारा निर्मित गैर सरकारी संगठन 'सेवा' (सेल्फ एंप्लॉयड वूमेंस एसोसिएशन) इसका एक बड़ा उदाहरण है।
इसके साथ एक और समस्या है दक्षिणपंथी ताकतों द्वारा महिला आंदोलन के कई मुद्दों को हथिया लेना। देवराला सती कांड के बाद दक्षिणपंथी स्त्रियों ने महिला आंदोलन का महत्वपूर्ण नारा 'हम भारत की नारी हैं फूल नहीं चिंगारी हैं।' को सती प्रथा के समर्थन में अपना लिया। समान नागरिक संहिता की जो बहस महिला संगठनों ने उठाई थी उसे भी दक्षिणपंथी ताकतों ने अपना लिया और इसका स्वरूप विकृत कर दिया। यहाँ तक कि महिला आंदोलन से जुड़े कार्यकर्ताओं पर यह आरोप भी लगाए गए कि वे उच्च जातीय, हिंदू, शहरी महिलाएँ हैं, जिसके कारण वे लोग किसी न किसी तरह से बी.जे.पी. जैसी पार्टियों के साथ इस मुद्दे पर गठजोड़ करती दिख रहीं हैं। इस पर महिला संगठनों के तमाम अग्रणी लोगों ने इस बात पर तीखी प्रतिक्रिया दी कि किसी भी स्थिति में महिला आंदोलन के समान नागरिक संहिता के मुद्दे के पक्ष में खड़े होने को इस तरह से नहीं देखा जा सकता। बात सिर्फ एक मुद्दे पर ही सीमित नहीं होगी, उसमें विधवा पुनर्विवाह, सती प्रथा, बाल विवाह, लेस्बियन और गे के मुद्दे, कामकाजी महिलाओं के मुद्दे सब पर तुलना करनी होगी, जिसमें कि दोनों में जमीन आसमान का फर्क है। इन मुद्दों पर महिला आंदोलन ने हमेशा से ही प्रगतिशील रुख अपनाया है। दूसरी बात ये भी मजबूती से आई कि महिला आंदोलन को किसी एकरूपता में कैद करना कितना बेमानी है क्योंकि उसके जुड़े सदस्यों में पर्याप्त वर्गीय,जातीय, धार्मिक, क्षेत्रीय भिन्नताएँ मौजूद हैं।20 अतः महिला आंदोलन की मुद्दों को लेकर अपनी समझ को किसी पार्टी विशेष से जोड़ना अनुचित होगा।
अगर मजबूत गठजोड़ इस दौर में किसी का हुआ है, तो वह है पूँजीवादी व्यवस्था और दक्षिणपंथी ताकतों का। सुप्रिया आर्केकर बताती है कि कैसे पूँजीवादी व्यवस्था और दक्षिण पंथी ताकतें मिलकर टीवी पर एक आधुनिक नारी को छवि गढ़ रहे हैं, वो छवि जो कि महिला आंदोलन ने तैयार की थी। टीवी, फिल्मों, पत्रिकाओं में दिखने वाली ये छवि या पांच्जन्य जैसी पत्रिकाओं के मुखपृष्ठ पर सशक्त हुई नारी की तसवीर देखने में तो लगता है कि स्त्री जीवन में प्रगतिशीलता लाने में ये भी अपनी भूमिका निभा रहे हैं पर वास्तविक रूप में कहीं से भी ये महिला आंदोलन द्वारा तैयार की मजबूत स्त्री को सामने नहीं ला पाते है क्योंकि जाति, जेंडर, वर्ग की असमानता पर उस स्त्री का रवैया पारंपारिक दृष्टिकोणों वाला ही होता है।21 लेकिन आधुनिक और सशक्त स्त्री का भ्रम पूँजीवादी और सांप्रदायिक ताकतों द्वारा पैदा किया जा रहा है। महिला आंदोलन को अपने मुद्दों की इन दक्षिणपंथी ताकतों से भी सुरक्षा की भी आवश्यकता है।
महिला आंदोलन के सामने एक बड़े प्रश्न के रूप में हायपर विसिबिलिटी की बात आ रही है, जिस ओर सूजी थारू और शर्मिला रेगे ने इशारा किया था। प्रगतिशील मुद्दों को लेकर जो महिला आंदोलन की बयार चली थी, उसमें दूसरी ओर प्रतिगामिता की ओर भी महिलाओं के एक बड़े वर्ग का रुझान देखने को मिलता है। जाति, धर्म, समुदाय की अस्मिता को लेकर महिलाएँ बड़ी संख्या में आंदोलन के नाम पर सक्रिय हो रहीं हैं। अपने समुदाय या धर्म के नाम पर वे कुछ समय के लिए बाहर तो निकलती हैं, लेकिन अपने जीवन की असमानताओं एवं जेंडर प्रश्नों को लेकर एक प्रकार की अज्ञानता उन्हें फिर से उनकी सीमित भूमिका में ही उन्हें बाँध देती है, पर महिलाओं का जेंडर असमानताओं के मुद्दे से अलग सिर्फ धर्म,जाति या समुदाय के नाम पर लामबंद होना महिला आंदोलन के सामने एक सवाल रखता है,कि इस महिला आंदोलन के प्रभाव को कैसे देखा जाए। गोधरा, मुजफ्फरनगर के दंगों में हम इसका प्रभाव देख चुके हैं।
अंत में आज राज्य सत्ता की आलोचना जो कि महिला आंदोलन का एक आधारीय तत्व था, वह कुछ जगहों पर छोड़कर बहुत मुखर रूप से नहीं आ रही है। यह श्रमिक, आदिवासी, उत्तर-पूर्व, कश्मीर, छत्तीसगढ़ के महिला आंदोलनों में जितना मुखर है बाकि स्थानों पर इसकी आवाज में एक धीमापन है। पर निर्भयाकांड के बाद इसमें भी एक तेजी आई है।
90 का दशक आर्थिक नीतियों, जातीय मसलों एवं सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के कारण बहुत जटिलता से भरा दौर रहा है। इस दौर ने लोगों के जीवन में बहुत तेजी से आर्थिक परिवर्तन देखा है। पर सामंती मूल्यों की मजबूती भी इस दौर में उतनी ही तेज देखने को मिली है। इन जटिल स्थितियों में जटिल सामाजिक आर्थिक संबंधों को महिला आंदोलन ने बारीकी से देखकर अपनी रणनीतियों को तैयार किया है, ताकि महिला मुद्दों को समग्रता में समझा जा सके, तथा उसे हर असमानता के साथ जोड़कर देखने की एक समग्र दृष्टि विकसित हो सके। बदली हुई स्थितियों के साथ भी महिला आंदोलन ने अपना थोड़ा रणनीतिक बदलाव किया है, जो नकारात्मक नहीं स्वागत योग्य है।
संदर्भ :
1. संघर्ष के बीच संघर्ष के बीज, इलीना सेन, पृष्ठ 11 Space within Struggle, Ilina Sen , Kali for Women, 1994
2 . सामजिक आंदोलनों को कैसे परिभाषित करें, घनश्याम शाह, मीडिया अंक 4, अक्टूबर-दिसंबर 2007 - जनवरी-मार्च 2008, पृष्ठ 30
3 . जाति समाज में पितृसत्ता, उमा चक्रवर्ती, पृष्ठ 13 Gendering caste through a feminist lense,Uma Chakravorty, stree, 2003
4 . More than just tracing women on to macropicture:feminist contribution to globalization discourses, sharmila rege,e.p.w.-vol.38,no.43 (oct25-3120030ws4555
5 . ibid
6 . श्रीलता स्वामीनाथन से दुष्यंत सिंह की बातचीत, मीडिया अंक 4, अक्टूबर-दिसंबर 2007 - जनवरी-मार्च 2008, पृष्ठ 86
7 . स्त्री संघर्ष के सौ साल : 3-5 मार्च 2010, स्त्री अध्ययन विभाग, म.गा.अ.हि.वि.,वर्धा का प्रतिवेदन
8 . http://www.sharadjoshi.in/sites/default/files/Visionaries%20of%20Bharat-PDF%20File.pdf
9 . https://sites.google.com/site/saheliorgsite/health/anti-fertility-vaccines/targetting-the-scientific-community
10 . http://infochangeindia.org/women/analysis/a-brief-history-of-the-battle-against-sexual-harassment-at-the-workplace.html
11 . From Mathura to manoram, kalpana kannabiran, ritu menon, Women Unlimited, 2007, pp106
12 . Integrative Reconciliation Mothers in the Naga Movement, Economic & Polotical Weekly, March 8, 2008, pp23
13 . www.womensenews.org/story/090116/muslim-women-in india-seek-secular-justice.
14 . Theory and practice of women's movement in India, Supriya Akerkar, epw, vol.30, no 17 (apr,291995) ws18
15 . https://parisar.wordpress।com/2007/02/21/khairlanji-dalits-rise-against-a-caste-patriarchy-backlash/
16 . From Mathura to manoram, kalpana kannabiran, itu menon, women Unlimited, 2007, pp100
17 . सहेली न्यूज लैटर
18 . http://womenintheworkplace2012.blogspot.in/2012/04/analysis-of-hilary-clintons-womens.html
19 . Seminar'towards equality', 505, sept 2011, 25
20 . UCC and Women's Movement,Amrita Chhachhi, Farida Khan & Others, Economic & Political Weekely, Fabruary 28, 1998, pp 487
21 . Theory and practice of women's movement in India, Supriya Akerkar,epw,vol. 30, no 17 (apr, 291995) ws14